रिपोर्टिंग टीम, हिंदी न्यूज़
मणिपुर में पिछले 20 महीनों से जारी हिंसा, राजनीतिक अस्थिरता और प्रशासनिक विफलता के बीच आखिरकार राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया है। मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह के इस्तीफे के बाद राज्य में बीजेपी नेतृत्व एक नए मुख्यमंत्री की तलाश में जुटा था, लेकिन हालात बिगड़ते देख केंद्र सरकार को यह कड़ा फैसला लेना पड़ा।
बताते चलें की मणिपुर में संकट की मुख्य वजह मैतेई और कुकी समुदायों के बीच संघर्ष ने राज्य को अशांत बना दिया, सैकड़ों घर जलाए गए, व्यापारिक प्रतिष्ठानों को नुकसान पहुंचा और आम जनता को दहशत के माहौल में जीने के लिए मजबूर होना पड़ा।इस हिंसा के चलते करीब 60 हजार से अधिक लोग अपने घर छोड़ने पर मजबूर हुए और राहत शिविरों में रहने को विवश हैं।
20 महीने से चले आ रहे इस जातीय संघर्ष में अब तक 300 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है और सरकार हालात पर काबू पाने में विफल रही।मणिपुर में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की भयावह घटनाएं सामने आईं, जिनमें से कुछ ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। लेकिन इन अपराधों पर सरकार की कार्रवाई बेहद धीमी रही।
मणिपुर में हालात सामान्य करने के लिए अमित शाह ने कई बार हस्तक्षेप किया, लेकिन नतीजे शून्य रहे। न तो हिंसा रुकी, न ही दोनों समुदायों के बीच तनाव कम हुआ।मणिपुर की जनता संकट से गुजरती रही, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 20 महीनों में एक बार भी मणिपुर नहीं गए। उन्होंने हालात पर संज्ञान लेने के बजाय विदेश दौरों को प्राथमिकता दी।
मणिपुर में यह जातीय संकट तब शुरू हुआ जब बीजेपी ने 2022 में बहुमत के साथ सरकार बनाई। लेकिन पार्टी प्रशासनिक और राजनीतिक स्तर पर इसे नियंत्रित करने में पूरी तरह असफल रही।अब जब राष्ट्रपति शासन लागू हो चुका है, तो राज्य में हालात सुधारने के लिए ठोस कदम उठाए जाने की उम्मीद है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यह फैसला 20 महीने पहले क्यों नहीं लिया गया? क्या केंद्र सरकार को मणिपुर की जनता के दर्द को समझने में इतनी देर क्यों लगी?
मणिपुर के लोग आज भी शांति और स्थिरता की आस लगाए बैठे हैं। लेकिन अब यह देखना होगा कि राष्ट्रपति शासन क्या सच में हालात सुधार पाएगा, या यह सिर्फ एक और राजनीतिक कदम साबित होगा?