जमीयत उलमा-ए-हिंद का विरोध: नीतीश, नायडू और चिराग की इफ्तार पार्टी से दूरी

नई दिल्ली: हिन्दी न्यूज़ ,क्फ संशोधन बिल और अन्य संवैधानिक मुद्दों पर चुप्पी साधने वाले नेताओं के खिलाफ जमीयत उलमा-ए-हिंद ने सांकेतिक विरोध जताने का फैसला किया है। संगठन ने घोषणा की है कि वह खुद को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले, लेकिन सत्ता के लिए मुसलमानों के साथ हो रहे अन्याय पर मौन साधने वाले नेताओं की इफ्तार, ईद मिलन और अन्य आयोजनों में भाग नहीं लेगा।

जमीयत उलमा-ए-हिंद के अनुसार, नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू और चिराग पासवान जैसे नेता खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते हैं, लेकिन जब मुस्लिम समुदाय से जुड़े संवैधानिक और धार्मिक अधिकारों पर चोट पहुंचती है, तो ये खामोश रहते हैं। संगठन का आरोप है कि ये नेता केवल अपने राजनीतिक फायदे के लिए धर्मनिरपेक्षता की आड़ लेते हैं और सत्ता में बने रहने के लिए उन नीतियों का समर्थन करते हैं जो संविधान के मूल सिद्धांतों के खिलाफ जाती हैं।

हाल ही में सरकार द्वारा पेश किए गए वक्फ संशोधन बिल को लेकर मुस्लिम समुदाय में असंतोष है। जमीयत उलमा-ए-हिंद ने आरोप लगाया है कि इस मुद्दे पर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेताओं ने कोई ठोस स्टैंड नहीं लिया। संगठन के अनुसार, अगर ये नेता सच में मुसलमानों के हितैषी होते तो वे खुलकर बिल का विरोध करते, लेकिन सत्ता में हिस्सेदारी बनाए रखने के लिए इन्होंने चुप्पी साध रखी है।

संगठन के पदाधिकारियों का कहना है कि यह निर्णय मुसलमानों की राजनीतिक चेतना को जगाने के लिए लिया गया है। “हम किसी राजनीतिक दल के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन उन नेताओं से दूरी बनाएंगे जो केवल इफ्तार और ईद मिलन में शामिल होकर धर्मनिरपेक्षता का दिखावा करते हैं, लेकिन जब मुसलमानों के अधिकारों पर हमला होता है, तो मौन साध लेते हैं।”

जमीयत उलमा-ए-हिंद के इस कदम से सियासी गलियारों में हलचल तेज हो गई है। माना जा रहा है कि इससे नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू और चिराग पासवान जैसे नेताओं पर दबाव बढ़ेगा कि वे अपने धर्मनिरपेक्ष रुख को स्पष्ट करें और मुसलमानों से जुड़े संवैधानिक मुद्दों पर खुलकर बोलें।

इस मामले पर अभी तक नीतीश कुमार, नायडू या चिराग पासवान की ओर से कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है, लेकिन सूत्रों के अनुसार, उनके खेमे में इस फैसले को लेकर चिंता है।

विशेषज्ञों का मानना है कि जमीयत उलमा-ए-हिंद का यह कदम मुस्लिम समुदाय में राजनीतिक जागरूकता को बढ़ा सकता है और आगामी चुनावों में इन नेताओं के समर्थन आधार पर असर डाल सकता है। साथ ही, यह देश में धर्मनिरपेक्षता बनाम राजनीतिक अवसरवाद की बहस को भी हवा दे सकता

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