मुस्लिम सियासत: धर्मनिरपेक्षता बनाम अवसरवाद, नए विकल्प की तलाश?

हिन्दी न्यूज़ ,जमीयत उलमा-ए-हिंद का नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू और चिराग पासवान जैसे नेताओं की इफ्तार और ईद मिलन दावतों से दूरी बनाने का फैसला महज सांकेतिक विरोध नहीं, बल्कि एक बड़े बदलाव का संकेत भी हो सकता है। यह सवाल उठता है कि क्या यह मुस्लिम समुदाय में बढ़ती राजनीतिक असंतोष की आहट है? और क्या इससे 2024 के बाद के राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं?

मुस्लिम राजनीति का बदलता स्वरूप ,भारत में मुसलमानों को आमतौर पर धर्मनिरपेक्ष दलों के पारंपरिक वोट बैंक के रूप में देखा जाता रहा है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल (राजद), तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) जैसी पार्टियों को मुस्लिम समर्थन मिलता रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में मुस्लिम समुदाय के अधिकारों, सुरक्षा और प्रतिनिधित्व को लेकर इन दलों की नीतियों पर सवाल उठने लगे हैं।

नीतीश कुमार, नायडू और चिराग पासवान जैसे नेताओं के खिलाफ जमीयत उलमा-ए-हिंद का यह विरोध इसी असंतोष की अभिव्यक्ति है। एक समय बिहार में नीतीश कुमार को मुसलमानों का सहानुभूति प्राप्त थी, लेकिन बीजेपी के साथ उनके राजनीतिक गठजोड़ और वक्फ संशोधन बिल जैसे मुद्दों पर उनकी चुप्पी ने मुस्लिम समाज को असहज कर दिया है।

वक्फ संपत्तियों की सुरक्षा और उनके प्रशासन से जुड़े नियमों में बदलाव करने वाले इस बिल को लेकर मुस्लिम समाज में व्यापक असंतोष है। जमीयत उलमा-ए-हिंद और अन्य मुस्लिम संगठनों का मानना है कि यह बिल वक्फ संपत्तियों पर सरकारी नियंत्रण बढ़ाने और उन्हें कमजोर करने की दिशा में उठाया गया कदम है।

मामला तब और गंभीर हो गया जब तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों ने इस पर कोई ठोस विरोध दर्ज नहीं कराया। खासतौर पर नीतीश कुमार, नायडू और चिराग पासवान, जो खुद को सेक्युलर कहते हैं, उनकी चुप्पी को मुस्लिम संगठनों ने “राजनीतिक अवसरवाद” करार दिया है।

क्या मुस्लिम वोट बैंक का बंटवारा होगा?अगर जमीयत उलमा-ए-हिंद जैसे संगठन सक्रिय होकर इस तरह के विरोध करते हैं, तो इसका सीधा असर आगामी चुनावों पर पड़ सकता है।

बिहार में राजद और कांग्रेस को फायदा हो सकता है, क्योंकि नीतीश कुमार की जेडीयू को मुस्लिम समर्थन कम होने की आशंका बढ़ेगी।

आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस और ओवैसी की एआईएमआईएम को लाभ मिल सकता है, क्योंकि नायडू की छवि मुस्लिम समर्थकों के बीच कमजोर होगी।

चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) को भी नुकसान हो सकता है, क्योंकि उनका हिंदुत्व-झुकाव वाली राजनीति करना और सेक्युलर होने का दावा करना मुस्लिम मतदाताओं को भ्रमित कर सकता है।

क्या मुस्लिम समाज नई राजनीतिक दिशा तलाश रहा है?हाल के वर्षों में एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी को मुसलमानों का समर्थन बढ़ता दिखा है। बंगाल, उत्तर प्रदेश और बिहार में ओवैसी ने मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित किया है। हालांकि, ओवैसी को लेकर यह तर्क दिया जाता है कि वे बीजेपी की “बी टीम” हैं और उनके चुनाव लड़ने से धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का नुकसान होता है।लेकिन यह सवाल भी उठता है कि जब तथाकथित सेक्युलर दल मुस्लिम मुद्दों पर कोई ठोस स्टैंड नहीं ले रहे, तो क्या मुस्लिम समाज को अपनी स्वतंत्र राजनीतिक दिशा तलाशनी चाहिए?

आने वाले समय में क्या होगा?मुस्लिम संगठनों का रुख: यदि जमीयत उलमा-ए-हिंद जैसे संगठन खुलकर मुस्लिम राजनीति में हस्तक्षेप करने लगते हैं, तो इससे मुस्लिम समुदाय में राजनीतिक चेतना बढ़ेगी।नई राजनीतिक ध्रुवीकरण: अगर नीतीश, नायडू और चिराग जैसे नेता मुस्लिम मुद्दों पर खुलकर बात नहीं करते, तो हो सकता है कि मुस्लिम मतदाता नए राजनीतिक विकल्पों की तलाश करें।राजनीतिक समीकरणों में बदलाव: बिहार, यूपी और बंगाल जैसे राज्यों में मुस्लिम मतों का झुकाव चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकता है।

गौरतलब है कि जमीयत उलमा-ए-हिंद का यह विरोध एक महत्वपूर्ण संकेत है कि मुस्लिम समुदाय अब सिर्फ चुनावी वोट बैंक नहीं रहना चाहता। अगर कथित धर्मनिरपेक्ष दल मुस्लिम मुद्दों पर चुप्पी साधे रहते हैं, तो भविष्य में मुस्लिम राजनीति में नए समीकरण देखने को मिल सकते हैं।

क्या यह विरोध महज इफ्तार पार्टियों से दूरी तक सीमित रहेगा, या फिर यह भारतीय राजनीति में एक नए बदलाव की नींव रखेगा? यह तो आने वाला समय ही बतायेगा

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