लेखक: मुनीष कुमार, संयोजक – समाजवादी लोक मंच
हिंदी न्यूज़ ।उच्च हिमालयी क्षेत्र में आपदाएं कोई नई बात नहीं हैं। यह भूगोल, जलवायु और पारिस्थितिकी के स्वाभाविक चक्र का हिस्सा रही हैं। किंतु बीते कुछ दशकों में देश की सरकारों द्वारा थोपे गए अंधे पूंजीवादी विकास माॅडल ने इन आपदाओं को भयावह रूप दे दिया है। उत्तराखंड इसका सबसे ताजा और त्रासद उदाहरण बनकर सामने आया है।
5 अगस्त को उत्तरकाशी के धराली में आई आपदा ने वर्ष 2013 की केदारनाथ त्रासदी की यादें ताजा कर दी हैं। खीरगंगा की हिम नदी में आए भीषण सैलाब ने धराली का पूरा बाजार, होटल, होम स्टे और स्थानीय जनजीवन तबाह कर दिया। 60-65 फुट ऊंचे मलवे में बड़ी संख्या में पर्यटक और स्थानीय नागरिक दबे हुए हैं। हर्षिल के पास सेना का एक कैंप भी इसकी चपेट में आया, जिससे 9 जवान लापता बताए जा रहे हैं।
विज्ञान और चेतावनियों को नज़रअंदाज़ किया गया। धराली जिस क्षेत्र में बसा है वह खीरगंगा नदी का कैचमेंट एरिया है — अत्यधिक ढलान वाला और अस्थिर भूभाग। वर्ष 2023 में वरिष्ठ पर्यावरणविद् विजय जुयाल ने इस क्षेत्र के भ्रमण के बाद चेताया था कि यहां हो रहे बेतरतीब निर्माण और 6 किलोमीटर सड़क चौड़ीकरण के लिए 6000 पेड़ों का कटान अत्यंत विनाशकारी होगा। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि कंक्रीट की दीवारें हिम नदियों को रोक नहीं सकतीं, क्योंकि ये नदियां केवल पानी नहीं बल्कि बोल्डर और मलवा भी साथ लाती हैं। दुर्भाग्यवश सरकार ने इन वैज्ञानिक चेतावनियों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया।
भूटान के वरिष्ठ भूवैज्ञानिक इमरान खान के अनुसार धराली से 7 किमी ऊपर समुद्र तल से 6700 मीटर की ऊंचाई पर मौजूद ग्लेशियर के पिघलने से 300 मीटर मोटे मलवे का जमाव हुआ था, जो 1.12 किमी तक फैला हुआ था। 5 अगस्त को हुई तेज बारिश और बादल फटने की घटना ने इस मलवे को नीचे धकेल दिया, जो तीव्र ढलान के कारण महज एक मिनट में ही धराली तक पहुंच गया।
कहां हैं जिम्मेदार? धराली आपदा कोई आकस्मिक प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि एक नीतिगत आपराधिक लापरवाही का परिणाम है। उत्तराखंड में सरकारों — भाजपा और पूर्ववर्ती कांग्रेस — ने टेंपल टूरिज्म और जल-विद्युत परियोजनाओं को विकास का आधार बनाया, जबकि ये क्षेत्र पर्यावरण की दृष्टि से अतिसंवेदनशील हैं। यहां पहाड़ों को धीरे-धीरे संवेदनशील तरीके से समझा जाता था, पर अब मशीनों और विस्फोटकों से सुरंगें बनाई जा रही हैं, सड़कें चौड़ी की जा रही हैं, और हजारों पेड़ों का अंधाधुंध कटान हो रहा है।
केदारनाथ आपदा के समय भी चोराबारी झील के फटने से मंदाकिनी नदी में भारी मलवा और बोल्डर आए थे, जिससे दस हजार से अधिक जानें गई थीं। उस त्रासदी में भी जल विद्युत परियोजनाओं की भूमिका प्रमुख रही थी — लेंको, एचसीएल, एलएंडटी जैसी कंपनियों ने प्राकृतिक प्रवाह को बाधित कर आपदा को विकराल बना दिया।
मीडिया, सरकार और जनता: वही पुरानी स्क्रिप्ट।हर आपदा के बाद वही कहानी दोहराई जाती है। मीडिया में कुछ दिन बहसें चलेंगी, विशेषज्ञों की बातें सुर्खियों में रहेंगी। सरकारें अपनी जिम्मेदारी से बचती हैं और राहत कार्यों की वाहवाही खुद करती हैं। फिर कुछ महीनों बाद सब कुछ भुला दिया जाता है — जैसे केदारनाथ को भूला गया, वैसे ही धराली को भी भुला दिया जाएगा। न तो जल विद्युत परियोजनाएं रुकेंगी, न ही पहाड़ों की तोड़फोड़ बंद होगी, और न ही पेड़ बचाए जाएंगे। क्योंकि इस विकास माॅडल का उद्देश्य जनता का कल्याण नहीं, बल्कि ठेकेदारों, कारपोरेट घरानों और राजनेताओं के मुनाफे की गारंटी है।
अब जनता को तय करना है रास्ता। अब वक्त है कि उत्तराखंड की जनता निर्णय ले क्या हम इस भयावह विकास माॅडल को यूं ही चलता देखते रहेंगे, या संगठित होकर इसके खिलाफ जन संघर्ष छेड़ेंगे?
समाजवादी लोक मंच की स्पष्ट मान्यता है कि उत्तराखंड की भौगोलिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए एक वैकल्पिक, टिकाऊ और स्थानीय विकास माॅडल की जरूरत है । जिसमें इंसान और प्रकृति दोनों को केंद्र में रखा जाए।अब अगर चुप रहे तो अगली आपदा और अधिक विनाशकारी होगी। धराली की यह पीड़ा अंतिम चेतावनी है।